मैंने खुद देखा है कि दिल्ली के सरकारी अस्पताल जिसमे बड़े बड़े नाम है उनकी स्तिथि बहुत ही दयनीय थी। अस्पताल में मरीज ज्यादा सुरक्षित नही था। कारण था अस्पताल में बहुत ही गन्दगी रहती थी। मरीज के साथ आने वाले तीमारदारों को भी बीमारियों से दोस्ती हो जाती थी और वे बीमार हो कर के अपने अपने घर जाते थे।
बहुत से अस्पतालों में डॉक्टर की जगह पर कंपाउंडर इलाज करते थे। और जो दवाई दी जाती थी वे बेअसर होती थी। यानि कि वे दवाई के नाम पर सिर्फ कुछ खट्टी मिठी गोलियां थी। मैंने देखा है कि इन अस्पतालों में झाड़ू पोचे, दवाई देने या नर्स भी एक डॉक्टर की तरह ही व्यवहार करते है। और इन्ही में से बहुत से झोलाछाप डॉक्टर बन कर के गरीब बस्तियों में इलाज कर रहे होते है।
आज का समय खास कर के 2014 के बाद सरकारी अस्पतालों की स्तिथि में बहुत सुधार आया है। जिसमे सबसे अहम है सफाई व्यवस्था जो कि अच्छी है। दिल्ली की बात की जाय तो आमआदमी पार्टी ने मोहल्ला क्लीनिक खोले जिसमे सभी गरीब आदमी अपना इलाज करा सकते है, पर अभी भी खामियां भरपूर है। डॉक्टरो और नर्सो की सबसे ज्यादा कमी है जिस कारण मरीजो का उचित इलाज नही हो पाता। दवाई तो मिलेगी ही नही क्योकि पास ही बहुत बड़े बड़े केमिस्ट है, लैबोरेटरी है जो सामान्यतया इन डॉक्टरों की मेहरबानी से अच्छे लाभ में चलते है।
मैंने जयपुर में राज्य सरकार द्वारा संचालित डिस्पेंसरियों का सर्वे किया और 2013 के मुकाबले पाया कि सफाई व्यवस्था उत्तम है। डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ भी समय पर आ कर के मरीजो को देखते है।
तुलनात्मक रूप से मोदी जी का शासन काल सरकारी अस्पतालों के लिये काफी फायदेमंद रहा। पिछले 10 सालों में सभी तरह के सरकारी अस्पतालो में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए है और काफी सकारात्मक रहे है। पर डॉक्टरों का रवैया नही बदला।
मैंने जयपुर के 10 डिस्पेंसरियों और दिल्ली की 5 मोहिल्ला क्लीनिक, 2 टीबी अस्पताल और 4 बड़े सरकारी अस्पतालों के सर्वे किया , जिसमे मैं किसी मरीज के साथ उनका तीमारदार बन के गया था।
मुझे दिल्ली के बहुत से मोहल्ला क्लीनिक पर सही डॉक्टर की कमी देखने को मिली। सबसे ज्यादा खराब हालत टीबी अस्पतालों के है जिसमे मरीज और डॉक्टर या नर्सिंग स्टाफ के बीच भयंकर छुआछूत का असर है। डॉक्टर मरीज को हाथ लगाने को तैयार नही , और करीब करीब 6 फिट दूर से ही मरीज के बीमारी के जुबानी स्टेटमेंट के आधार पर ही दवाई लिख दी जाती है।
उनके गले मे टंगा स्टेथोस्कोप तो केवल डॉक्टर होने का सिंबल है यानि वे उससे मरीज को चेक नही करते। इसके पीछे दो तरह की मानसिकता है।
पहली की मरीज एक गरीब आदमी है, छोटा आदमी है तो उसको छूना सही नही है। दूसरा है उसकी बीमारी कंही उनको न लग जाय यानि संक्रमण की।
यही वाक्य मैंने जयपुर की डिस्पेंसरियों में देखा। जिसमे डॉक्टर केवल मरीज द्वारा रोग के ब्यौरे के मुताबिक दवाई का लिखना है , वे भी मरीज से ज्यादा बात नही करते और न ही उसको आला लगा के चेक करते है।
मैंने जब डॉक्टरों से इस बावत बात की तो मुझे सुन कर कुछ अचम्भा लगा कि क्या सच मे लोग पहली वाली मानसिकता को लिये हुए है, यानि कि मरीज को छोटे तबके के जान कर उससे किसी तरह का संवाद नही करते न ही उसको सही से जांचा जाता है। डॉक्टर माथुर जो कि जयपुर के जाने माने जनरल फीज़ीशन है उनका कहना है कि अगर डॉक्टर मरीज के साथ दो बोल प्यार के बोल दे और उसको स्टेथोस्कोप से चेक कर ले यो मरीज आधा तो वंही ठीक हो जाएगा। पर सरकारी अस्पताल के बहुत से डॉक्टर मरीज को केवल पहली वाली मानसिकता से देखते है।
आज देश विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। लेकिन अभी भी हमारे सिस्टम में बहुत सी सरकारी व्यवस्थाओं में कमियां है। मोदी जी ने सफाई अभियान की अगुवाई कर के देश को बीमार होने से बचा लिया है वरना सरकारी अस्पतालों की जो स्तिथि होती वह आज भी वही 20वी सदी की तरह बीमारू होती। आज भी डॉक्टर मरीज को गँवार, छोटा और निम्न दर्जे का मान कर उससे ढंग से बात नही करते , उनको हाथ लगाना तो दूर उनको सही से रोग के बारे में या लिखी हुई दवाई के बारे में नही समझाते। और सब से बड़ा दुर्भाग्य तब देखने को मिलता है जब यही डॉक्टर अपने निजी क्लीनिकों में मोटी फीस लेकर उन्ही मरीजो को इत्मीनान से देखते है , उनसे हंस के बात करते है, और उनको ढंग से जांच भी करते है। तो फिर अचानक क्या हो जाता है जब वे सरकारी अस्पतालों में ड्यूटी पर होते है। वहां न समय पर आते है और न ढंग से मरीजो की जांच होती है।
क्या इस तरह की कमियों का संज्ञान भारत के मेडिकल कॉलेजो को नही लेना चाहिए, या जो बड़ी बड़ी मेडिकल कॉउंसिल बनी हुई है उनके पास आचारसंहिता नही है । क्या मरीज के साथ इस तरह का बर्ताव सही है।
इस बारे में आप भी अपने विचार मुझे जरूर भेजना। मिल कर के हम इन विसंगतियों को दूर करेंगे।